सुंदर कथा ११५ (श्री भक्तमाल – श्री गणेशदास जी) Sri Bhaktamal – Sri Ganeshdas ji

बाबा श्री गमेशदास भक्तमाली जी पर स्वयं श्री रामराजा सरकार की कृपा –

बाबा श्री गणेशदास भक्तमाली जी जब अपने विद्यार्थी जीवन की समाप्ति के बाद साधना के पथ पर निकले तो कुछ दिन विंध्याचल रहे, फिर चित्रकूट रहे और आगे चलते चलते जंगलों के रास्ते से ओरछा की तरफ बढ़े । जाते जाते रास्ता भटक गए , तीन दिन बाद जैसे तैसे ओरछा पहुंचे । तीन दिन से भूखे थे, इतनी भूख लगी कि वहां बेतवा नदी के तट पर बैठे बैठे थोड़ी मिट्टी खाकर जल पी लिया और वही सो गए । अगले दिन उठे तो सोचने लगे की आज तो एकादशी है, आज भी जल पीकर ही भजन करेंगे । भगवान के नाम का जाप करने बैठे उतने मे ही एक वैष्णव वहां आये और कहां की ब्रह्मचारी जी प्रणाम ! मै पंडित रामराजा ! यही ओरछा का रहने वाला हूं । आप भूख से पीड़ित लहते है । मेरे घर मे बहुत पवित्रता है अतः आप मेरे घर एकादशी का फलाहार करने पधारें । ब्रह्मचारी महाराज उनके साथ उनके घर गए और भगवान का प्रसाद पाकर वापस बेतवा नदी के तट पर आकर भजन करने लगे ।

अगले दिन द्वादशी के दिन पंडित राजाराम जी पुनः वहां आये और बोले – आज द्वादशी है ! शास्त्र कहता है की द्वादशी का पारायण करने से ही पुण्य मिलता है अतः आप प्रसाद पाने मेरे घर पधारें । कुछ दिन वही नदी किनारे रहकर भजन किया । एक दिन ब्रह्मचारी जी के मन आया कि चलो उन राजाराम पंडित से मिलकर आये और ओरछा मे निवास करने का कोई स्थान पूछा जाए । पूरे ओरछा मे घूम घूम कर पंडित राजाराम के घर का पता पूछा पर कुछ पता नही लगा, संध्याकाल होनेपर श्री रामराजा सरकार के मंदिर गए और वहां के पुजारी जी से पूछा – बाबा! आप की उम्र बहुत हो गयी यहां रहते रहते ।कृपया यह बताएं कि ओरछा मे कोई पंडित रामराजा निवास करते है क्या? पूरा ओरछा ढूंढ लिया पर पंडित रामराजा का कुछ पता नही लगा ।

पुजारी जी ने नेत्रों से अश्रु बहने लगे , उन्होंने कहा – वो कोई पंडित राजाराम नही थे, वे स्वयं रामराजा सरकार थे जिन्होंने आपको प्रसाद पवाया । मुझे श्री रामराजा सरकार ने स्वप्न दर्शन देकर कहा कि मेरा प्रिया भक्त काशी से ओरछा आएगा । आप उसके भोजन और निवास का इंतजाम मंदिर में ही कर दीजिए । कुछ महीने वही रहकर फिर श्री वृंदावन को आये ।

श्री भक्तमाल की विस्तृत व्याख्या –

श्री जगन्नाथ प्रसाद भक्तामाली जी जब विद्यार्थियों को भक्तमाल पढ़ाते थे तब भक्तमाल की विस्तृत व्याख्या उपलब्ध नही थी । एक बार उनके मन मे आया की भक्तमाल की विस्तृत व्याख्या होनी चाहिए । उन्होंने श्री सुदामा दास जी से भी इस बात को कहां । इस कार्य का निर्णय करने के लिए उन्होंने निश्चय किया की चित्रकूट से श्री रामेश्वर दास रामायणी जी को बुलाया जाए और बाबा श्री गणेशदास जी को बुलाया जाए । फिर सब संतो की सन्निधि मे कब, कैसे, कौन, कहां पर भक्तमाल की व्याख्या होगी इस बात पर चर्चा करेंगे । श्री रामेश्वर दास जी और बाबा श्री गणेशदास के पास संदेश पहुँचाया गया की अमुक दिन चर्चा के लिए सुदामा कुटी मे बैठक होगी । जिस दिन चर्चा होनी थी उसी दिन सुदामा कुटी मे संतो का विशाल भंडारा भी रखा गया था । उस दिन श्री गणेशदास जी सुदामा कुटी पहुंचे तो पंगत बैठ चुकी थी ।

सुदामा कुटी मे उस समय के कोतवाल थे श्री राम नारायणदास (कोतवाल बाबा) जी । वे त्रिकाल दाऊजी का प्रसाद भोग (भांग) ग्रहण करते थे । भांग प्रसाद लेने के बाद उनका अलग ही रंग ढंग हो जाता था । श्री गणेशदास जी बड़ी सामान्य सी बेषभूषा रखते थे, देखकर समझ नही आता था कोई संत महापुरुष है । कोतवाल ने कहां – ए ! कहां घुसे चले जाते हो, पंगत बैठ गयी है । न्योता है तुम्हारा ? कोई भी अंगला कंगला भीतर घुसे चले जाता है । चलो जाओ यहां से । पंगत मे नही घुसने दिया जाएगा । पंगत के बाद मिलेगा खाने को । बाहर मिलता है भिखारियों को, बाहर मिलेगा तुमको । फटकार के भगा दिया । बाबा गणेशदास जी ने कुछ नही कहा । वे शांति से बाहर चले गए । उस समय श्री लीलानंद ठाकुर (पागल बाबा) वही पास मे विराजते थे, वे रास्ते पर खिचड़ी प्रसाद की पंगत करा रहे थे । उन्होंने श्री गणेशदास जी को देखकर कहा – ओ बाबा! इधर आ, खिचड़ी खा ले । श्री गणेशदास जी ने वही सड़क पर बैठकर खिचड़ी प्रसाद पाया । उतनी देर मे सुदामा कुटी मे पंगत भी उठ गई । अब भीतर जाने मे कोई प्रतिबंध नही था ।

श्री गणेशदास जी भीतर गए तो श्री जगन्नाथ प्रसाद भक्तामाली आदि संतो ने कहा – सरकार हम सब आपके साथ प्रसाद पाने का ही इंतजार कर रहे थे । आपको आने मे थोड़ा विलंभ हो गया परंतु पहले हम सब प्रसाद पाते है उसके बाद चर्चा करेंगे । श्री गणेशदास जी ने कहा की आप सब प्रेम से प्रसाद पाओ, मैने अभी प्रसाद पाया है । सब संतो ने कहां – कहां पाया? आपको तो यहां प्रसाद पाना चाहिए था । श्री गणेशदास जी बोले – हमने यही पर पाया है । संतो ने पूछा – क्या पाया ? श्री गणेशदास जी बोले – खिचड़ी प्रसाद । संत बोले – हमारे यहां तो खिचड़ी प्रसाद बना ही नही, आपने कैसे पाया ? श्री गणेशदास जी बोले की मैने यही बाहर लीलानंद ठाकुर के यहां खिचड़ी प्रसाद पाया है । भूख लगी ही थी और संत ने आज्ञा भी किया कि खिचड़ी प्रसाद पाओ तो पा लिया । संतो ने कहा – की लीलानंद ठाकुर तो सड़क पर पंगत कराते है । श्री गणेशदास जी ने कहा की हमने सड़क पर बैठ कर ही प्रसाद पाया है ।

श्री गणेशदास जी ने कोतवाल बाबा की कोई शिकायत नही की और न कुछ बोले की उन्होंने हमें डांट फटकार के भगाया । संतो ने सब से पूछा तो पता लगा की इन्हें कोतवाल बाबा ने डांट कर कुछ सुनकर भगाया । संतो ने कहा की आपको कहना चाहिए था की हमे विशेष अतिथि के रूप में श्री सुदमादास जी और श्री जगन्नाथ प्रसाद जी ने गोवधान से बुलाया है । आप यह भी कह सकते थे की हमारे आने की सूचना अंदर जाकर महंत जी को दो । बाबा श्री गणेशदास हाथ जोड़ कर बोले की कोतवाल बाबा संत है, उनका वैष्णव वेश है । उन्होंने आज्ञा दिया की बाहर जाओ, हम चले गए । उसके बाद संतो ने पूछा की आपने ऐसे सड़क पर बैठकर प्रसाद क्यों पाया? श्री गणेशदास जी बोले की सम्पूर्ण श्री ब्रजमंडल सच्चिदानंद मय है । चार अंगुल बहु भूमि ऐसी नही है जो अपवित्र हो, सभी स्थानों पर संत और भगवंत के चरण पड़े है । भगवत प्रसाद कही भी बैठकर पाया जा सकता है – क्या बाहर और क्या भीतर ।

यह उत्तर सुनकर श्री जगन्नाथ प्रसाद भक्तामली जी के नेत्र बरस पड़े । उन्होंने कहा की जिस प्रयोजन के लिए चर्चा होनी थी वह तो पूरा हो गया । ऐसा मान अपमान से ऊपर उठा हुआ भक्त ही श्री भक्तमाल ग्रंथ पर लेखनी उठा सकता है । ऐसी संत, वैष्णव, ब्रजधाम के प्रति निष्ठा जिस भक्त मे हो वही श्री भक्तमाल ग्रंथ की विस्तृत व्याख्या कर सकता है । यह किसी सामान्य पढ़े लिखे या पंडित व्यक्ति के बस की बात नही है की केवल अपने पांडित्य के बल से भक्तमाल पर कलम चलाए । इसके बाद संतो की आज्ञा पाकर श्री गणेशदास जी एवं श्री रामेश्वर दास रामायणी जी द्वारा भक्तमाल ग्रंथ का ४ खंडों मे विस्तार हुआ जो आज श्री रामानंद पुस्तकालय (सुदामा कुटी) द्वारा प्रकाशित होते है ।

बाबाश्री गणेशदास जी के कृपापात्र श्री राजेन्द्रदासचार्य जी द्वारा मैने जैसा सुना वैसा लिखने का प्रयास किया । भूल चूक के लिए क्षमा करें ।

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